Saturday, December 14, 2024

غزل ( کلوندر کنول ) شاہ مکھی امرجیت سنگھ جیت









 چڑھدے پنجاب دی مانمتّی ساہتک شخصیت، نامور

 شاعرہ کُلوِندر کنول ہُراں دی اک غزل:

رات نوں سُنّسان ویلے کیوں ڈراؤندا ہے کوئی،

بال  کے  دِل  دی  چِتا  ہنجھو وہاؤندا ہے کوئی


جان  کے   آ بَیٹھیا  مقتل  دوارے  اوہ   جدوں،

مرن توں اُس نوں بھلا کد تک بچاؤندا ہے کوئی


ہَوکیاں    نوں   ازما    کے  ویکھنا  ہے ،  سوچیا،

روندیاں نوں ویکھ کے ہُن وی وراؤندا ہے کوئی ؟


سَون  دے ،  نہ  شور کر  ، سُتّا  بڑے  چِر  بعد دِل،

کر بہانا   روز    ہی  اِس  نوں  رواؤندا   ہے  کوئی


پَون  وی   مدہوش   ہو  کے  کر  رہی سرگوشیاں،

زندگی   دا   گیت   جِدّاں   گُنگناؤندا   ہے   کوئی


زندگی  نوں  جیون  دا  نُقطہ اویں  سمجھا  رِہَے

بھٹکیا  رہبر  جویں  رستہ  وکھاؤندا   ہے  کوئی


کلپناواں    دی   اُڈاری    لا    کدے   آسمان   وِچ،

ڈور  توں  بِن  جِس طرح گُڈی چڑھاؤندا ہے کوئی


فیر  چیتے  آ گئے  اجّ  دیر  توں  وچھڑے  سجن،

اِس طرح  بےچَین  دِل نوں غم ستاؤندا ہے کوئی


میٹ  دے اپنی  خودی جے تانگھ مِلنے دی 'کنول'،

پاڑ  کے  ہِکّ،  ہاک دے ،  تینوں  بلاؤندا  ہے کوئی۔


کُلوِندر کنول

ਪੰਜਾਬੀ ਸਾਹਿਤ ਦੀ ਮਾਣਮੱਤੀ ਸ਼ਖਸੀਅਤ , ਨਾਮਵਰ ਸ਼ਾਇਰਾ ਕੁਲਵਿੰਦਰ ਕੰਵਲ ਹੁਰਾਂ ਦੀ ਇਕ ਗ਼ਜ਼ਲ 


ਰਾਤ  ਨੂੰ  ਸੁੰਨਸਾਨ  ਵੇਲੇ   ਕਿਉਂ  ਡਰਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ, 

ਬਾਲ਼ ਕੇ  ਦਿਲ  ਦੀ  ਚਿਤਾ  ਹੰਝੂ  ਵਹਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ 

رات نوں سُنّسان ویلے کیوں ڈراؤندا ہے کوئی،

بال  کے  دِل  دی  چِتا  ہنجھو وہاؤندا ہے کوئی


ਜਾਣ  ਕੇ  ਆ  ਬੈਠਿਆ  ਮਕਤਲ  ਦੁਆਰੇ   ਉਹ  ਜਦੋਂ, 

ਮਰਨ ਤੋਂ ਉਸ ਨੂੰ  ਭਲਾ ਕਦ  ਤਕ ਬਚਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ 

جان  کے   آ بَیٹھیا  مقتل  دوارے  اوہ  جدوں،

مرن توں اُس نوں بھلا کد تک بچاؤندا ہے کوئی


ਹੌਕਿਆਂ   ਨੂੰ   ਅਜਮਾ    ਕੇ   ਵੇਖਣਾ    ਹੈ,  ਸੋਚਿਆ,

ਰੋਂਦਿਆਂ  ਨੂੰ   ਵੇਖ   ਕੇ  ਹੁਣ  ਵੀ  ਵਰਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ ?

ہَوکیاں    نوں   ازما    کے  ویکھنا  ہے ،  سوچیا،

روندیاں نوں ویکھ کے ہُن وی وراؤندا ہے کوئی ؟


ਸੌਣ ਦੇ,  ਨਾ ਸ਼ੋਰ ਕਰ , ਸੁੱਤਾ ਬੜੇ  ਚਿਰ  ਬਾਦ  ਦਿਲ,

ਕਰ  ਬਹਾਨਾ  ਰੋਜ਼  ਹੀ  ਇਸ  ਨੂੰ  ਰਵਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ 

سَون  دے ،  نہ  شور کر  ، سُتّا  بڑے  چِر  بعد دِل،

کر بہانا   روز    ہی  اِس  نوں  رواؤندا   ہے  کوئی


ਪੌਣ   ਵੀ   ਮਦਹੋਸ਼  ਹੋ  ਕੇ  ਕਰ   ਰਹੀ  ਸਰਗੋਸ਼ੀਆਂ,

ਜਿੰਦਗੀ   ਦਾ  ਗੀਤ  ਜਿੱਦਾਂ  ਗੁਣਗੁਣਾਉਂਦਾ  ਹੈ   ਕੋਈ 

پَون  وی   مدہوش   ہو  کے  کر  رہی سرگوشیاں،

زندگی   دا   گیت   جِدّاں   گُنگناؤندا   ہے   کوئی


ਜਿੰਦਗੀ  ਨੂੰ  ਜਿਉਣ   ਦਾ  ਨੁਕਤਾ  ਇਵੇਂ  ਸਮਝਾ ਰਿਹੈ

ਭਟਕਿਆ  ਰਹਿਬਰ  ਜਿਵੇਂ  ਰਸਤਾ  ਵਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕੋਈ 

زندگی  نوں  جیون  دا  نُقطہ اویں  سمجھا  رِہَے

بھٹکیا  رہبر  جویں  رستہ  وکھاؤندا   ہے  کوئی


ਕਲਪਨਾਵਾਂ  ਦੀ   ਉਡਾਰੀ   ਲਾ  ਕਦੇ  ਅਸਮਾਨ  ਵਿਚ, 

ਡੋਰ  ਤੋਂ  ਬਿਨ  ਜਿਸ  ਤਰ੍ਹਾਂ  ਗੁੱਡੀ  ਚੜ੍ਹਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ

کلپناواں    دی   اُڈاری    لا    کدے   آسمان   وِچ،

ڈور  توں  بِن  جِس طرح گُڈی چڑھاؤندا ہے کوئی


ਫੇਰ  ਚੇਤੇ   ਆ   ਗਏ   ਅਜ  ਦੇਰ  ਤੋਂ  ਵਿਛੜੇ  ਸਜਣ,

ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੇਚੈਨ  ਦਿਲ  ਨੂੰ   ਗ਼ਮ  ਸਤਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ 


فیر  چیتے  آ گئے  اجّ  دیر  توں  وچھڑے  سجن،

اِس طرح  بےچَین  دِل نوں غم ستاؤندا ہے کوئی

ਮੇਟ  ਦੇ  ਅਪਣੀ  ਖੁਦੀ  ਜੇ  ਤਾਂਘ  ਮਿਲਣੇ  ਦੀ  'ਕੰਵਲ', 

ਪਾੜ   ਕੇ   ਹਿੱਕ,  ਹਾਕ  ਦੇ, ਤੈਨੂੰ   ਬੁਲਾਉਂਦਾ  ਹੈ  ਕੋਈ।

میٹ  دے اپنی  خودی جے تانگھ مِلنے دی 'کنول'،

پاڑ  کے  ہِکّ،  ہاک دے ،  تینوں  بلاؤندا  ہے کوئی۔


ਕੁਲਵਿੰਦਰ ਕੰਵਲ

کُلوِندر کنول

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